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Friday, October 25, 2013

काजी लेन्दुप दोरजियों का कोई देश नहीं होता – आनंद स्वरूप वर्मा

काजी लेन्दुप दोरजियों का कोई देश नहीं होता – आनंद स्वरूप वर्मा 

‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के सितंबर 2013 अंक का संपादकीय


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('लेन्डुप दोर्जेहरुको कुनै देश हुँदैन' आनन्द स्वरुप वर्माले 'समकालीन तीसरी दुनिया' को सेप्टेम्बर २०१३ अंकको सम्पादकीयमा लेख्नु भएको यो लेख पढ्दा लाग्छ नेपालमा सिक्किमको ईतिहास दोहरिरहेको छ । नेपालको छिमेकी देश भुटानको चुनावको सन्दर्भमा लेखिएको भएपनि नेपालीहरुले एकपल्ट यो लेख पढनै पर्छ भन्ने मेरो आग्रह हो । संविधान सभाले संविधान बनाउन नसकेपछि जुन परिस्थितिमा नेपालमा दोस्रो संविधान सभाको निर्वाचन हुँदैछ यी र यस्तै इतिहासका घटनाक्रमले लेखक वर्मा कै भनाई 'जब जब ऐसे गद्दारों का जिक्र आयेगा जिन्होंने अपनी मातृभूमि से विश्वासघात किया, तब तब काजी लेन्दुप दोरजी याद किये जायेंगे। ऐसे लोगों का कोई देश नहीं होता, कोई काल नहीं होता। वे तमाम भौगोलिक सीमाओं से परे कभी भी किसी भी देश में प्रकट हो सकते हैं। कभी यह खतरा नेपाल में दिखायी देता है तो कभी भूटान में' लाई पुष्टि गर्दछ । नेपालको राजनीतिमा लेन्डुप दोर्जेको भूमिका निर्वाह गर्ने को जन्मिएलान त ? प्रस्तुत लेख पढिसकेपछि हरेक नेपालीको मनमस्तिष्कमा स्वाभाविक प्रश्न उठ्न थाल्दछन् ।  – ब्लगर राज श्रेष्ठ)

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इस बार भूटान के चुनाव ने न जाने क्यों काजी लेन्दुप दोरजी की याद ताजा कर दी। ऐसा नहीं कि दोरजी को याद करने वाला मैं अकेला व्यक्ति हूं- भूटान और नेपाल के कई क्षेत्रों में उन्हें आज लोग फिर याद करने लगे हैं। राजनीति का कुछ ऐसा चमत्कार ही है कि जब जब भारत की दादागिरी (जिसे शिष्ट भाषा में प्रभुत्ववाद कह सकते हैं) की झलक हिमालय से सटे देशों में दिखायी देती है तो वह घाव हरा हो जाता है जो लेन्दुप दोरजी की कृपा से लोगों को झेलना पड़ा है। इसे इतिहास की विडंबना ही कहेंगे कि भारत की भौगोलिक सीमा का विस्तार करने वाले इस व्यक्ति को भारत में भी कभी याद नहीं किया गया। बेशक, सरकारी स्तर पर उन्हें कुछ पद्म भूषण वगैरा जैसा सम्मान देकर एक रस्म अदायगी कर दी गयी लेकिन जिस अकेलेपन और उदासी के अंतिम क्षणों को उन्होंने कालिमपोंग में बिताते हुए जिंदगी समाप्त की वह सचमुच एक दयनीय स्थिति थी। तो भी इतिहास में वह खुद को एक दूसरे ढंग से अमर कर गये। जब जब ऐसे गद्दारों का जिक्र आयेगा जिन्होंने अपनी मातृभूमि से विश्वासघात किया, तब तब काजी लेन्दुप दोरजी याद किये जायेंगे। ऐसे लोगों का कोई देश नहीं होता, कोई काल नहीं होता। वे तमाम भौगोलिक सीमाओं से परे कभी भी किसी भी देश में प्रकट हो सकते हैं। कभी यह खतरा नेपाल में दिखायी देता है तो कभी भूटान में। 



और शायद यह खतरा तब तक बना रहेगा जब तक भारत में कोई ऐसी सत्ता स्थापित न हो जो पड़ोसी देशों की संप्रभुता को उसके आकार से अथवा उसकी आर्थिक हैसियत से मापना बंद करे और साम्राज्यवादी तथा विस्तारवादी मंसूबों को छोड़कर बराबरी के आधार पर सम्बन्ध कायम रखे। वह दिन असंभव तो नहीं है लेकिन फिलहाल बहुत नजदीक भी नहीं दिखायी देता क्योंकि ऐसा होना केवल भारत पर निर्भर नहीं करता। इसके लिए अगल बगल के छोटे देशों की सामाजिक संरचना में आमूल बदलाव की लड़ाइयां बहुत मायने रखती हैं… लेकिन इन्हीं देशों में लेन्दुप दोरजी भी पैदा करा दिये जाते हैं।



अभी हाल में के.वी. राजन द्वारा संपादित पुस्तक ‘दि एम्बेस्डर्स क्लब’ में संकलित बी.एस. दास का लेख ‘सनसेट फॉर दि चोग्याल’ मैं पढ़ रहा था। बी.एस. दास को 7 अप्रैल 1973 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सिक्किम भेजा गया था ताकि वह अपनी सूझ बूझ से चोग्याल का शासन समाप्त कर भारत में सिक्किम के विलय का रास्ता तैयार करें। बी.एस. दास ने अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह किया लेकिन अपने इस संस्मरणात्मक लेख में उन्होंने यही बताने की कोशिश की है कि चीन से उत्पन्न खतरे को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाना कितना जरूरी था। उनका कहना है कि वैसे भी सिक्किम का कोई खासतौर पर भारत से अलग अस्तित्व नहीं था। वे शायद यह बताना भूल गये कि विलय से पहले सिक्किम में ‘प्रधानमन्त्री’ होता था न कि ‘मुख्यमंत्री’। बहरहाल बी.एस. दास ने एक राष्ट्रीय हित का काम किया- सचमुच राष्ट्रीय हित का ही।



क्या फिर राष्ट्रीय हित के लिए भारत के सत्ताधरी वर्ग की निगाह भूटान पर लगी है? आखिर पूर्व प्रधानमंत्री जिग्मे वाई थिन्ले की पार्टी ड्रुक फेन्सुम सोंग्पा (डीपीटी) के इस चुनाव में हराने में भारत ने जो भूमिका निभाई उसके पीछे भी तो प्रेरक शक्ति यही थी कि जिग्मे थिन्ले चीन के साथ बहुत दोस्ताना सम्बन्ध बनाने में लगे हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के नेता और नये प्रधानमंत्री शेरिंग तोब्गे भारत की छः दिन की यात्रा पर आ चुके हैं और उनकी इस यात्रा से पहले हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन के साथ नयी विदेश सचिव सुजाता सिंह राजधनी थिंपू में भूटान सरकार का आतिथ्य ग्रहण कर चुकी हैं। दो महीने के भीतर दोनों देशों के बीच जो प्यार का सागर उमड़ता हुआ दिखायी दे रहा है वह अचानक चुनाव से 20 दिन पहले किस महाद्वीप की ओर मुड़ गया था जब भारत सरकार ने जनता की मुसीबतों की परवाह किये बगैर कुकिंग गैस और किरासिन जैसी दैनिक जरूरत पर से सब्सिडी हटा दी थी। डीपीटी के चुनाव हारते ही भारत सरकार का सारा घाटा पूरा हो गया और सब्सिडी पिफर शुरू कर दी गयी। (इस चुनाव पर टिप्पणी हमने अपने पिछले अंक में की है।) इसी अंक में हम सिक्किम पर दो लेख भी प्रकाशित कर रहे हैं जो क्रमशः भारतीय जनता और नेपाली जनता के दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं। इस लेख में काजी लेन्दुप दोरजी की आह भी सुनाई पड़ती है जब वह बताते हैं कि किस तरह सिक्किम के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद भारत सरकार ने उनसे पूरी तरह अपना पल्ला झाड़ लिया। वैसे यह जानना भी रोचक होगा कि विलय के बाद जिस जनता ने दोरजी की जय जयकार करते हुए वहां की असेंबली की 35 सीटों में से 34 पर उनकी पार्टी सिक्किम नेशनल कांग्रेस को विजय दिलायी थी, उसी जनता ने पांच साल बाद हुए चुनाव में उनके एक भी उम्मीदवार को असेंबली नहीं पहुंचने दिया। भारतीय संसद में 26 अप्रैल 1975 को सिक्किम के विलय को अंतिम रूप देने वाले संविधन संशोधन अधिनियम को पारित करते समय तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सीपीएम के विरोध् के स्वर को जिन सांसदों ने नहीं सुना उन्हें भी पांच साल बाद पता चल गया था कि सिक्किम की जनता ने काजी लेन्दुप दोरजी को खारिज कर दिया है। दोरजी को खारिज करने का अर्थ विलय के प्रति अपनी नाराजगी लेकिन वह कुछ नहीं कर सकती थी।


भूटान के चुनाव के संदर्भ में इतनी बातें कहने के पीछे मेरा मकसद यह बताना है कि आज जुलाई 2013 के चुनाव के बाद भूटान की जनता भारतीय खतरे को बहुत बारीकी से देख रही है और उसे बार बार सिक्किम की याद आ रही है। ऐसा कहने का आधर भूटान के दर्जनों ब्लॉग्स और वेब साइट्स हैं जिनमें उनकी भावनाएं व्यक्त हो रही हैं। हैरानी तब होती है जब भूटान की सरकारी वेबसाइट ‘कुन्सेल ऑन लाइन’ पर भी ऐसी टिप्पणियां लगातार दिखायी दे रही हैं जिनसे लगता है कि भूटानी जनता बिलकुल ‘एलर्ट’ की मुद्रा में आ गयी है।


पिछले दिनों राजधनी थिम्पु में दक्षिण एशिया के देशों का एक साहित्यिक समारोह हुआ था जिसमें सांस्कृतिक क्षेत्र के बहुत सारे लोग इकट्ठे हुए थे। ‘अतीत का आइना’ (दि मिरर ऑपफ दि पास्ट) शीर्षक सत्रा में डॉक्टर कर्मा पफुंत्सो ने भारत और भूटान के संबंधें के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं थीं। डॉक्टर कर्मा ‘हिस्ट्री ऑपफ भूटान’ के लेखक हैं और एक इतिहासकार के रूप में उनकी काफी ख्याति है। उन्होंने भारत के साथ भूटान की मैत्री को महत्व देते हुए कहा कि इस तरह के साहित्यिक समारोह होते रहने चाहिए। क्योंकि ‘कभी-कभी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हो जाती हैं जैसीकि अतीत में हुई।’ उनका संकेत हाल के चुनाव से पूर्व भारत द्वारा भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी बंद कर देने से था। उन्होंने आगे कहा कि ‘शायद भूटान के लोग हमारी स्थानीय राजनीति में भारत के हस्तक्षेप को पसंद नहीं करते लेकिन अपने निजी हितों के कारण राज्य गलतियां करते रहते हैं। उनके इस कदम से दोस्ताना संबंधें को नुकसान पहुंचता है।’ इसी संदर्भ में उन्होंने भारत की नाराजगी का कारण भूटान के ‘चीन से हाथ मिलाने’ को बताया। डॉक्टर कर्मा ‘लोदेन पफाउंडेशन’ के संस्थापक हैं और दुनिया के विभिन्न देशों में बौद्ध धर्म के बारे में व्याख्यान देते हैं। उन्होंने भारत और भूटान संबंधें की चर्चा करते हुए बताया कि खास तौर पर भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद से भूटान के साथ थोड़ा तनाव पैदा हुआ और यह इस सीमा तक बढ़ा कि भूटान को दुआर क्षेत्रा में अपनी जमीन का लगभग पांचवां हिस्सा ब्रिटिश भारत को देना पड़ा। उन्होंने आगाह किया कि भूटान के लोगों को भारत से कुछ भी लेते समय बहुत सतर्क रहना चाहिए। क्योंकि ‘भारत-भूटान संबंध् को  यहां सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनीतिक और सबसे बढ़कर आर्थिक निर्भरता के लिए भारत की ओर से इस्तेमाल किया जाता है। अगर हमारी आर्थिक निर्भरता बनी रही तो कभी यह मैत्री बराबरी की स्तर की नहीं हो सकती।’


डॉक्टर कर्मा के वक्तव्य पर कापफी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं और मजे की बात है कि अध्किांश प्रतिक्रियाएं सरकारी चैनल ‘कुंसेल ऑनलाइन’ के माध्यम से सामने आयीं। एक प्रतिक्रिया में किसी भूटानी नागरिक ने कहा कि अगर भूटान दुनिया के कुछ अन्य शक्तिशाली देशों के साथ अपना संबंध् कायम कर लेता है तो भारत परेशान हो जाता है। उसने आगे कहा कि भूटान के अपरिपक्व राजनीतिज्ञों की समझ अगर ऐसी ही रही तो भारत की ‘गंदी राजनीति’ इसी प्रकार जारी रहेगी और एक दिन वह हमें भी भारतीय बना देगा।


इस ब्लॉग पर अपनी राय व्यक्त करने वाले भूटानी नागरिकों ने राजतंत्रा के भय से अपनी पहचान को छुपा कर रखा है लेकिन उन्होंने जो बातें कहीं हैं उनमें अपनी भावनाओं को नहीं छिपाया है। एक नागरिक ने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है कि ‘मुझे लगता है कि हम जो यहां के मतदाता हैं अगर पूरी तरह स्टुपिड नहीं तो बेवकूपफ तो हैं ही। ‘जिस समय सब्सिडी हटायी गयी हमें लग गया कि कुछ गड़बड़ है और हमारा पड़ोसी हस्तक्षेप कर रहा है और जिस समय चुनाव जीतने वाली पार्टी ने सब्सिडी को मुद्दा बनाया तब तो इसकी पक्के तौर पर पुष्टि हो गयी’।


सबसे तीखी प्रतिक्रिया का उल्लेख तो थिम्पु के एक बुद्धिजीवी येशे दोरजी ने अपने लेख में किया जिसमें एक नागरिक ने कहा कि ‘इस चुनाव में हम एक नया प्रधनमंत्री चाहते थे – अगर सावधनी से काम न करते तो हमें शायद एक मुख्यमंत्री मिलता।’ यह वाक्य बेहद गहरे अर्थ से भरा है। भारत में विलय से पहले काजी लेंदुप दोरजी सिक्किम के प्रधनमंत्री हुआ करते थे जिनकी हैसियत विलय के बाद मुख्यमंत्री की हो गयी। डॉक्टर कर्मा के सुझाव पर एक नागरिक ने याद दिलाया कि पूर्व प्रधनमंत्री जिग्मे थिनले ने अपनी सक्रिय कूटनीति के जरिए चीन के साथ सीमा समझौतों में काफी प्रगति की थी और विभिन्न देशों के साथ संबंध् स्थापित करने में भी कापफी तेजी दिखायी थी लेकिन भारत को ये बातें नागवार लगीं। इस व्यक्ति ने लिखा है कि भूटान में तेल की जितनी खपत होती है उस पर पूरी तरह भारत का नियंत्राण है और देश की जल विद्युत परियोजनाओं का 90 प्रतिशत विकास भारत के सहयोग से हुआ है और इस असंतुलित संबंध् को देखते हुए यह आशंका पैदा होनी स्वाभाविक है कि ‘एक दिन सिक्किम की तरह भूटान को भी भारत हड़प लेगा’।


14 जुलाई को भूटान के एक ब्लॉग पर येसे दोरजी का एक लेख देखने को मिला जिसका शीर्षक था ‘2013 जनरल इलेक्सनः इंडिया इज विक्टोरियस’। जिग्मे थिनले की डीपीटी पार्टी, जिसने प्राथमिक चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें हासिल की थीं लेकिन भारत की दखलंदाजी की वजह से अंतिम चुनाव में वह पीछे रह गयी और टोबले की पार्टी पीडीपी सबसे आगे निकल गयी। इसका सारा श्रेय केवल इस टिप्पणी के लेखक ने ही नहीं बल्कि भूटान के व्यापक जन समुदाय ने (वे भी जो पीडीपी के समर्थक थे) भारत को दिया। सबसे हैरानी और शर्मिंदगी पैदा करने वाली बात तो यह है कि भूटान के चुनाव आयोग ने अभी औपचारिक तौर पर पीडीपी के जीतने की घोषणा भी नहीं की थी कि भारत के प्रधनमंत्री मनमोहन सिंह ने शेरिंग तोब्गे को बधई संदेश भेज दिया। मनमोहन सिंह का बधई संदेश वहां के अखबारों में प्रकाशित हुआ और मजे की बात यह है कि कुछ वेब साइट्स और ब्लॉग्स ने मनमोहन सिंह का बधई संदेश और भूटान के चुनाव आयोग की अध्सिूचना दोनों को साथ-साथ प्रकाशित किया। प्रधनमंत्री का संदेश 13 जुलाई को भेजा गया है जबकि चुनाव नतीजों की घोषणा 14 जुलाई को हुई। किसी ने यह टिप्पणी भी की कि अगर अपफवाहों के आधर पर अथवा अपुष्ट समाचारों के आधर पर भारत के प्रधानमंत्री बधई संदेश दे देते हैं तो ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग के सामने कितनी बड़ी मुश्किल पैदा हो सकती है। अभी तो पीडीपी विजयी हुई थी लेकिन अगर किसी वजह से वह विजयी नहीं होती तो क्या भूटान का चुनाव आयोग उल्टे नतीजे देकर भारत के प्रधनमंत्री को शर्मनाक स्थिति में डालने की हिमाकत करता?

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